Marathwada and Osmanabad Massacre 1948 Narsanhar Ki Kahani
Marathwाड़ा और उस्मानाबाद नरसंहार 1948 की कहानी
1948 का नरसंहार: मराठवाड़ा, जो वर्तमान में महाराष्ट्र का हिस्सा है, कभी हैदराबाद रियासत का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र था। 1948 में, जब भारत ने हैदराबाद पर कब्जा किया, तो इस क्षेत्र में भयंकर हिंसा भड़की, जिसने हजारों जिंदगियों को प्रभावित किया। मराठवाड़ा और उस्मानाबाद (जिसे अब धाराशिव कहा जाता है) उन क्षेत्रों में शामिल थे, जहाँ मुस्लिम समुदाय के खिलाफ अत्याचार हुए। यह हिंसा केवल धार्मिक नहीं थी, बल्कि इसके पीछे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण भी थे। इस नरसंहार को समझने के लिए हमें उस समय की परिस्थितियों, हैदराबाद रियासत की स्थिति और ऑपरेशन पोलो की पृष्ठभूमि को देखना होगा। यह कहानी उन लोगों की भी है, जिन्होंने इस हिंसा के बीच अपनी जान और इज्जत बचाने की कोशिश की।
हैदराबाद रियासत और ऑपरेशन पोलो
हैदराबाद रियासत, जिसका शासक निजाम मीर उस्मान अली खान था, 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद भी स्वतंत्र रहना चाहता था। इस रियासत में मराठवाड़ा, तेलंगाना और कर्नाटक के कुछ हिस्से शामिल थे। निजाम ने भारत या पाकिस्तान में शामिल होने से इनकार कर दिया, क्योंकि वह अपनी रियासत को एक स्वतंत्र इस्लामी राज्य बनाना चाहता था। लेकिन भारत सरकार, विशेषकर सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में, इसे भारत का हिस्सा बनाना चाहती थी।
13 सितंबर 1948 को भारतीय सेना ने ऑपरेशन पोलो की शुरुआत की। यह एक सैन्य अभियान था, जिसका उद्देश्य हैदराबाद को भारत में शामिल करना था। पाँच दिन बाद, 17 सितंबर 1948 को निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया, और हैदराबाद भारत का हिस्सा बन गया। लेकिन इस जीत के बाद मराठवाड़ा, उस्मानाबाद, गुलबर्गा और बीदर जैसे क्षेत्रों में हिंसा का दौर शुरू हुआ। इस हिंसा का मुख्य निशाना मुस्लिम समुदाय था, जो रियासत की कुल आबादी का 11 प्रतिशत था।
ऑपरेशन पोलो के दौरान और इसके बाद, स्थानीय हिंदू भीड़ और कुछ मामलों में भारतीय सेना के सैनिकों ने मुस्लिम गाँवों पर हमले किए। मस्जिदों को अपवित्र किया गया, घरों और दुकानों को लूटा गया और आग लगा दी गई। पंडित सुंदरलाल समिति की रिपोर्ट, जिसे जवाहरलाल नेहरू ने नियुक्त किया था, ने इस हिंसा को विस्तार से दर्ज किया। इस रिपोर्ट के अनुसार, 20,000 से 40,000 मुस्लिम मारे गए, और लाखों लोग अपनी जान बचाने के लिए भाग गए। उस्मानाबाद और लातूर जैसे क्षेत्रों में हिंसा सबसे ज्यादा थी, जहाँ हजारों मुस्लिमों की हत्या हुई।
नरसंहार की पृष्ठभूमि: निजाम का शासन और रजाकार
हैदराबाद रियासत में निजाम का शासन मुस्लिम शासक वर्ग और बहुसंख्यक हिंदू आबादी के बीच तनाव का कारण बना। निजाम की सेना और रजाकार नामक मुस्लिम मिलिशिया ने हिंदू आबादी पर अत्याचार किए, खासकर उन लोगों पर जो भारत में विलय का समर्थन करते थे। रजाकारों के नेता, कासिम रजवी, ने हिंसा और आतंक का माहौल बनाया। गाँवों में आगजनी, लूटपाट और हत्याएँ आम थीं। इसने हिंदू समुदाय में गुस्सा भड़का दिया।
जब भारतीय सेना ने हैदराबाद पर कब्जा किया, तो यह गुस्सा बदले की भावना में बदल गया। रजाकारों के अत्याचारों का जवाब देने के लिए स्थानीय हिंदू भीड़ ने मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया। लेकिन यह हिंसा केवल बदले की कार्रवाई नहीं थी। इसमें आर्थिक और सामाजिक कारण भी शामिल थे। मुस्लिम समुदाय, खासकर लातूर जैसे व्यापारिक केंद्रों में, आर्थिक रूप से संपन्न था। कच्छी व्यापारी और अन्य मुस्लिम व्यापारियों की दौलत ने स्थानीय हिंदुओं में ईर्ष्या पैदा की थी। हिंसा के दौरान उनकी संपत्ति को लूटा गया और उनके घरों को जलाया गया।
हिंसा का स्वरूप: क्रूरता की हद
हिंसा का स्वरूप बेहद क्रूर था। पुरुषों को चुन-चुनकर मारा गया, जबकि महिलाओं और बच्चों को जबरन धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया गया। सुंदरलाल समिति ने बताया कि सैकड़ों मुस्लिम महिलाओं के माथे पर हिंदू शैली में जबरन टैटू बनाए गए, और बच्चों के कान छेदकर हिंदू रीति-रिवाज थोपे गए। पवित्र धागा पहनाने और दाढ़ी मुंडवाने जैसी घटनाएँ आम थीं। गंजोटी गाँव की पाशा बी नाम की एक महिला ने बताया कि सेना के आने के बाद हिंसा शुरू हुई। गाँवों में आगजनी, लूट और बलात्कार की घटनाएँ हुईं।
हालांकि, कुछ हिंदू परिवारों ने मुस्लिमों को अपने घरों में शरण दी और उनकी जान बचाई। यह दिखाता है कि सारी हिंसा सांप्रदायिक नहीं थी; कुछ लोग मानवता के नाते एक-दूसरे की मदद के लिए आगे आए। लेकिन कुल मिलाकर, यह हिंसा एक संगठित नरसंहार का रूप ले चुकी थी, जिसमें स्थानीय मिलिशिया और कुछ भारतीय सैनिक भी शामिल थे।
नरसंहार के कारण
मराठवाड़ा और उस्मानाबाद नरसंहार के कई कारण थे, जो एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। पहला कारण था रजाकारों का आतंक। निजाम के समर्थन से रजाकारों ने हिंदू समुदाय पर अत्याचार किए, जिसने बदले की भावना को भड़काया। ऑपरेशन पोलो के बाद यह गुस्सा मुस्लिम समुदाय पर निकला, जिसमें निर्दोष लोग भी शिकार बन गए।
दूसरा कारण था आर्थिक असमानता। हैदराबाद रियासत में मुस्लिम समुदाय का एक हिस्सा आर्थिक रूप से मजबूत था। लातूर जैसे शहरों में मुस्लिम व्यापारियों की दौलत ने स्थानीय हिंदुओं में जलन पैदा की। हिंसा के दौरान उनकी संपत्ति को निशाना बनाया गया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि लूटपाट भी एक बड़ा मकसद था।
तीसरा कारण था प्रशासनिक विफलता। ऑपरेशन पोलो के बाद हैदराबाद में अराजकता का माहौल था। भारतीय सेना का ध्यान निजाम को हराने पर था, और स्थानीय प्रशासन हिंसा को रोकने में नाकाम रहा। कई मामलों में, सैनिकों ने हिंसा को रोकने की बजाय इसमें हिस्सा लिया।
चौथा कारण था सांप्रदायिक ध्रुवीकरण। निजाम के शासन में मुस्लिम वर्ग को विशेषाधिकार प्राप्त थे, जैसे ऊँची नौकरियाँ और उर्दू भाषा का प्रभुत्व। मराठवाड़ा में मराठी बोलने वाली आबादी को यह भेदभाव खटकता था। ऑपरेशन पोलो के बाद यह गुस्सा हिंसक रूप में सामने आया।
नरसंहार का प्रभाव
हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच का विश्वास टूट गया। मराठवाड़ा, जो पहले से ही सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा था, इस हिंसा के बाद और कमजोर हो गया। गाँवों में जलाए गए घर और दुकानें फिर से बसने में सालों लग गए। आर्थिक नुकसान इतना भारी था कि कई परिवार अपनी आजीविका खो बैठे।
इस नरसंहार ने भारत की नवजात आजादी को भी एक दाग दिया। जवाहरलाल नेहरू, जो सांप्रदायिक सौहार्द के पक्षधर थे, इस हिंसा से स्तब्ध थे। सुंदरलाल समिति की रिपोर्ट को गोपनीय रखने का फैसला शायद इसलिए लिया गया, ताकि सांप्रदायिक तनाव और न बढ़े। लेकिन इसने पीड़ितों के लिए न्याय की राह को और मुश्किल कर दिया।
न्याय की अधूरी कहानी
सुंदरलाल समिति की रिपोर्ट ने हिंसा की भयावहता को उजागर किया, लेकिन इसके आधार पर कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई। कुछ स्थानीय नेताओं और मिलिशिया सदस्यों पर मुकदमे चले, लेकिन ज्यादातर लोग सजा से बच गए। भारतीय सेना के सैनिकों की संलिप्तता के आरोपों की जाँच नहीं हुई। यह एक ऐसा दौर था, जब भारत अपनी आजादी के बाद के हालात को संभालने में जूझ रहा था। विभाजन की हिंसा और देश के सामने खड़ी अन्य चुनौतियों ने इस नरसंहार को पृष्ठभूमि में धकेल दिया।
पीड़ितों को मुआवजा और पुनर्वास की सुविधा भी न के बराबर मिली। जो लोग अपने गाँवों से भाग गए, वे या तो अन्य शहरों में चले गए या गरीबी में जीने को मजबूर हुए। मराठवाड़ा के कई गाँवों में मुस्लिम आबादी फिर से पूरी तरह बस नहीं पाई। यह नरसंहार आज भी एक संवेदनशील मुद्दा है, जिस पर खुलकर बात नहीं होती।
सांप्रदायिक हिंसा कितनी जल्दी अनियंत्रित हो सकती है, अगर प्रशासन समय पर हस्तक्षेप न करे। रजाकारों के अत्याचारों ने भले ही गुस्सा भड़काया, लेकिन निर्दोष लोगों पर हमला करना इसका जवाब नहीं था। यह हिंसा एक संगठित नरसंहार बन गई, जिसमें सामाजिक और आर्थिक कारणों ने भी बड़ी भूमिका निभाई।
यह घटना यह भी सिखाती है कि नवजात देशों में एकता और विश्वास की कितनी जरूरत होती है। हैदराबाद का विलय भारत के लिए एक बड़ी जीत थी, लेकिन इसके बाद की हिंसा ने इस जीत को धूमिल कर दिया। अगर प्रशासन और सामाजिक संगठन समय पर कदम उठाते, तो शायद यह त्रासदी टल सकती थी।
आज मराठवाड़ा एक नई पहचान बना रहा है। 17 सितंबर को मराठवाड़ा मुक्ति संग्राम दिवस के रूप में मनाया जाता है, जो हैदराबाद के भारत में विलय की याद दिलाता है। लेकिन इस जीत के साथ-साथ हमें उन लोगों की कहानी भी याद रखनी चाहिए, जो इस हिंसा का शिकार बने। मराठवाड़ा का भविष्य तभी उज्ज्वल होगा, जब हम सांप्रदायिक सौहार्द और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देंगे।
1948 का मराठवाड़ा और उस्मानाबाद नरसंहार एक ऐसी त्रासदी थी, जिसने हजारों जिंदगियों को तबाह कर दिया। यह हिंसा न सिर्फ सांप्रदायिक थी, बल्कि इसमें आर्थिक लालच, सामाजिक तनाव और प्रशासनिक नाकामी का भी योगदान था। सुंदरलाल समिति की रिपोर्ट ने इस नरसंहार की भयावहता को उजागर किया, लेकिन न्याय की राह अधूरी रही। यह कहानी हमें सिखाती है कि नफरत और हिंसा का जवाब मानवता और एकता में छिपा है। मराठवाड़ा की धरती, जो कभी खून से लाल हो गई थी, आज फिर से प्रगति की राह पर है। लेकिन हमें इस इतिहास को भूलना नहीं चाहिए, ताकि ऐसी त्रासदी फिर कभी न दोहराए जाए।
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